खेतों में कभी लगता था
वो मिट्टी का कोमल लेप
नंगे पैर ही मसलते थे मिट्टी
जब होते थे जलमग्न वो खेत
शहरों में जब खिसकने लगी
रोज़ी रोटी की ये जद्दोजहद
खेतों की लम्बाईयाँ भी
सिमट गयीं कुछ क्यारियों में
नन्हे हाथ भी सजाते थे क्यारियां
फूलों के गुलदस्ते और कुछ सब्जियां
चढ़ते गए फिर मंज़िलें ऊपर
खत्म हो क्यारियां रह गए गमले
वो फूल हट रह गए कुछ पौधे
अब गमलों में भी हाथ नही लगते
मिट्टी के हाथ भी गंदे लगते
जबरन पेड़ भी लगाते हैं मौकों पर
पर भूल जाते हैं उन्हें भी अगले ही पल
खेतों की दुनिया गमलों में सिमट गयी
उन गमलों को भी अब बासी हवा निगल गयी
बंद कमरों में पौधे सिसकते हैं
ताज़ी हवा और सूरज को भी तरसते हैं
न जाने फिर कब अब आज़ाद होंगे
मिट्टी में खेलेंगे और कीचड़ में लिपटेंगे
फिर कब गमले क्यारियों में जाएंगे
फिर कब शहरों से खेतों में जाएंगे
Phir gawn ki khet yad as gaya varsat me dhan ka khet Sir.
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अब गमलों में भी हाथ नही लगते
मिट्टी के हाथ भी गंदे लगते
Ek ek shabd aur panktiyan satik likhi hai aapne……
sach yatharth se koso dur aa gaye hain ham,
kya khub viksit ho gaye hain ham……
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Sir bachpan yaad aa gaya
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Awesome poem sir…
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Awesome poem sir…
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