
बरसों बरस बीत गए अब तो
उठाकर बस्ते वो अब नहीं आते
फेंक के जूते इधर उधर जो
स्कूल की बातें थे बतलाते
दूर कहीं किसी जद्दोजहद में
अब वो जल्दी घर नहीं आते।
रोज़ जो घर पे थे धूम मचाते
चुप रहने की डाँट भी खाते
बल्ला लेकर बाहर जाते
मिट्टी में सन फिर वापस आते
इसको भी बीते दिन हफ़्ते महीने
अब वो जल्दी घर नहीं आते।
गुड़िया की शादी होती थी
चूल्हे पर छोटी पूरी बनती थी
वो चकला बेलन से हाथ बटाती
पानी लेकर जो दौड़ी आती
अब फ़ोन से अपना हाल बताती
अब वो जल्दी घर नहीं आती।
मित्र मंडलियाँ जो जमतीं थीं
यारों सखियों की भी पंगत थी
माँ के हाथों के वो चटखारे
चाय पकोड़ों पर होती बातें
गपशप में थे जो दिन बिताते
अब वो जल्दी घर नहीं आते।
गुलाल रंगों से रंगे थे रहते
पटाखों का भी शोर मचाते
अंदर बाहर दौड़ दौड़ कर
हर पर्व की जो रंग बन जाते
काम में इतना उलझे रहते
अब वो जल्दी घर नहीं आते।
परिवार बना अब निकल गए
एक नयी दुनिया को बसाने
ढूँढ रहे हैं घर दूजा वो
एक अनजान शहर को अपनाने
बनाकर वहीं अंजाने नाते
अब वो जल्दी घर नहीं आते।
शरीर का ताप बढ़ने पर जो
तपते माथे पर पट्टी करते
काम दूसरे छोड़ कर सारे
दिन रात सेवा करते रहते
बीमारी में भी उन्हें देखने
अब वो जल्दी घर नहीं आते।
राह जोतती वो बूढ़ी आँखें
तस्वीर पुरानी रहतीं तकते
प्रतीक्षा में जिनकी दिन बिताते
घर है जिनका यह अब भी
अब वो जल्दी घर नहीं आते
अब वो जल्दी घर नहीं आते।